कोरोनावायरस संक्रमण (कोविड-19) से बचाव के नाम पर देश भर में टीकाकरण अभियान (वैक्सीनेशन) शुरू हो चूका है। तीन हज़ार केंद्रों पर शुरू में तीन लाख लोगों को देश भर में वैक्सीन लगाने की तैयारी है। टीकाकरण से पहले लोगों से लिखित सहमति भी ली जाएगी। यहाँ मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूँ कि टीकाकरण में श्कोवैक्सीनश् का इस्तेमाल ट्रायल मोड में होगा। सरकार ने यह भी तय किया है कि टीकाकरण की सूचि में शामिल नाम वाले लोगों के न आने पर रिज़र्व सूचि में शामिल नाम वाले व्यक्तियों को बुलाया जायेगा। पाठकों को पता होगा कि देश में दो वैक्सीन (कोविशील्ड)
तथा (कोवैक्सिन) को आपात इस्तेमाल की अनुमति मिली है। आपात इस्तेमाल अनुमति के दिशानिर्देशों के अनुसार वैक्सीन इंटेलिजेंट नेटवर्क(को-विन) के जरिये प्राथमिकता वाले लोगों की पहचान की जाएगी। वैसे तो आपात इस्तेमाल अनुमति की शर्तों के अनुसार इसमें वैक्सीन एडवर्स इवेंट रिपोर्टिंग सिस्टम, वैक्सीन सेफ्टी डाटा लिंक, बायोलॉजिकल इफेक्टिवनेस सेफ्टी इनिशिएटिव आदि भी होना चाहिए। नागरिकों को दोनों वैक्सीन के साइड इफेक्ट को भी जान लेना चाहिए। वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों की घोषणा के अनुसार श्कोविशिल्डश् के साइडइफेक्ट में दर्द,थकान,मांशपेशियों में दर्द,जोड़ों में दर्द,ठंढ लगना,जी मिचलाना आदि तथा श्कोवैक्सीनश् के साइडइफेक्ट में वैक्सीन लगाने स्थान पर दर्द, सर में दर्द, थकान, बुखार, पेट में दर्द, मांशपेशियों में दर्द, जोड़ों में दर्द, ठंढ लगना, कंपकपी, जी मिचलाना आदि संभव है।
कोरोना की वैक्सीन को लेकर इतनी आशंकाओं की ठोस वजहें भी हैं। दरअसल किसी भी वैक्सीन या दवा के निर्माण की प्रक्रिया में अब तक कई बड़ी कम्पनियों ने ऐसे ऐसे घोटाले किए हैं जिसे चिकित्सा एवं व्यापार की भाषा में अनैतिक एवं फ्राड कहा जाता है। कई ऐसे प्रमाण और उदाहरण हैं कि बड़ी दवा कम्पनियां फर्जी शोध के आधार पर अपने सन्दिग्ध दवा को लांच कर उसकी मार्केटिंग कर लेती हैं। अतीत से लेकर अब तक ऐसे कई उदाहरण हैं। नवम्बर 1999 एवं फरवरी 2000 में त्रिवेन्द्रम के क्षेत्रीय कैंसर केंद्र में जान हापकिन्स के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर अमरीका में खोजे गए दो रसायन डन्छ तथा ळन्छ का गैरकानूनी परीक्षण किया गया। यह परीक्षण मुंह के कैंसर से ग्रस्त 26 लोगों पर किया गया था। ऐसे ही जनवरी 2000 से अगस्त 2008 तक अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान, दिल्ली के शिशु रोग विभाग में 42 ट्रायल्स की गई थी जिसमें 4142 बच्चे शमिल थे। इनमें से 2728 बच्चे तो एक साल से भी कम उम्र के थे। इस ट्रायल्स के दौरान 49 बच्चों की मौत हो गई थी। इस ट्रायल्स में जिन दवाओं के परीक्षण हुए वे हैं-जिंक की गोलियां, आल्मेसरटेन तथा वाल्सरटेनए रक्तचाप से जुड़ी समस्या के लिये रिटुक्सिम्ब। सवाल है कि रक्तचाप से जुड़ी दवाओं का बच्चों पर परीक्षण करने की क्या जरूरत थी? ऐसे ही कोरोनावायरस संक्रमण के इलाज में प्रयुक्त रेमिडेसिविर नामक दवा को काफी महीनों बाद डब्लूएचओ ने खारिज कर दिया है।स्पष्ट है कि नये रोगों के उपचार व बचाव की दवा के परीक्षण में कम्पनियां व सरकारी गैर सरकारी एजेन्सियां तमाम तिकड़म लगाती हैं क्योंकि उन्हें अपने मुनाफे की परवाह है न कि आपके जान की।
अब सवाल है कि जब कोरोना वायरस अपना स्ट्रेन बार बार बदल रहा है तो जो वैक्सीन आने वाले हैं क्या वे ‘‘असरदार” होंगे? वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियां तो कह रही हैं कि,‘‘बन रहे वैक्सीन असरदार हैं?’’ लेकिन कम्पनियां यह भी कह रही हैं कि, ‘‘यह वैक्सीन एक इम्यून बूस्टर की तरह है।” कैम्ब्रीज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रवि गुप्ता (क्लिनिकल माइक्रोबायोलोजिस्ट) कहते हैं कि यदि वायरस स्ट्रेन बदलता रहा तो यह चिंता की बात है। ‘‘प्रो. गुप्ता के अनुसार ‘‘कोरोना वायरस वैक्सीन से बचने की कगार पर है और यह इस दिशा में कई कदम आगे बढ़ा चुका है।” प्रो. गुप्ता के वक्तव्य से ब्रिटेन के ग्लास्गो यूनिवर्सिटी के प्रो. डेविड राबर्टसन भी इत्तेफाक रखते हैं उनका कहना है कि ‘‘सम्भव है कि यह वायरस ऐसा म्यूटेन्ट बना ले जो वैक्सीन से बच जाता हो।” इन दोनों महत्वपूर्ण वायरोलोजिस्ट की बातों से मेरी एक आशंका सही साबित होती दिख रही है कि कोरोना वायरस संक्रमण दरअसल एक ‘‘फ्लू” है जो मनुष्यों के साथ ही रहेगा और सामान्य जुकाम खांसी की तरह कमजोर इम्यूनिटी वाले लोगों के लिये जानलेवा बना रहेगा।इस दौरान वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों और व्यापारियों के वक्तव्यों पर गौर करें। वैक्सीन व महामारियों के कारोबार को समझने में आपकी काफी सहूलियत होगी। बिल-मेलिंडा गेट्स फाउन्डेशन के प्रमुख बिल गेट्स ने फाउन्डेशन के वार्षिक रिपोर्ट में लिखा है कि कोरोना वायरस संक्रमण को नियंत्रित करने के लिये दुनिया की 70 फीसद आबादी को वैक्सीन लगाना जरूरी है। उनके अनुसार हर व्यक्ति को वैक्सीन की दो खुराक (डोंज) लगाना जरूरी है। इस हिसाब से दुनिया भर के लोगों के लिये दस अरब डोज की जरूरत होगी। इतनी वैक्सीन का निर्माण आसान नहीं है। यदि सभी वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों को मंजूरी दे दी जाए तो सालाना 5 अरब डोज वैक्सीन बनेगी यानि 10 अरब डोज के लिये दो वर्ष लगेंगे। इसके लिये कई कम्पनियों को डोज बनाने का लाइसेंस देना होगा। बिल गेट्स की चिंता है कि कोरोना वैक्सीन बनाने के लिए अभी भारत के सीरम इन्स्टीच्यूट को बड़े पैमाने पर उत्पादन का लाइसेंस मिला है। यह कम्पनी एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन का उत्पादन कर रही है।
बिल गेट्स ने अपने वार्षिक रिपोर्ट में साफ कहा है कि उनके फाउन्डेशन ने एक बड़ी रकम कोरोनावायरस से बचाव की वैक्सीन के नाम पर खर्च किया है। इसलिए दुनिया में उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बिल गेट्स ने साफ किया है कि वैक्सीन बनाने के लिये ‘‘दूसरे विश्व युद्ध” जैसी व्यवस्था करनी पड़ेगी। इसका मतलब हुआ कि जैसे दूसरे विश्व युद्ध में बड़े पैमाने पर टैंक और युद्ध के हथियार बनाने वाली आटोमोबाइल कम्पनियों को प्राथमिकता दी गई थी वैसे ही इस कोरोना महामारी के दौर में वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों को युद्ध स्तर पर लगाए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि वैक्सीन बनाना एक बात है और उसे अरबों लोगों में वितरित करना और बात है। गेट्स फाउन्डेशन वैक्सीन के वितरण के लिए 16 दवा कम्पनियों और विभिन्न देशों की सरकारों के गठजोर से काम कर रही है। यदि गेट्स फाउन्डेशन के वैक्सीन अभियान पर गौर करें तो कोई 20 वर्ष पूर्व गेट्स फाउन्डेशन ने ‘‘ग्लोबल एलाएन्स फार वैक्सीन एण्ड इम्यूनाइजेशन” (गाबी) नामक एक संस्था बनाकर विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ तथा विश्व बैंक के साथ कई देशों में वैक्सीन के प्रचार प्रसार का अभियान चलाया हुआ है। इस वैक्सीन एलाएन्स का लक्ष्य विभिन्न महामारियों में वैक्सीन के प्रचार-प्रसार व वितरण को बढ़ावा देना है। उल्लेखनीय है कि कोरोना वायरस से बचाव की वैक्सीन निर्माण में गेट्स फाउन्डेशन ने एक बड़ी राशि दाव पर लगी है।