articles

कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर और ‘लाकडाउन’ का एक साल

देश में कोरोना महामारी के आतंक को एक वर्ष से ज्यादा हो गए और इसके साथ ही इस महामारी से निबटने के नाम पर सरकार द्वारा देश में लगाए गए लाकडाउन की त्रासदी को भी एक वर्ष पूरे हो चुके हैं। ‘‘लाकडाउन” की इस बरसी पर कोरोना वायरस संक्रमण फिर से सर उठा रहा है। कहा जा रहा है कि यह कोरोना की दूसरी लहर है। आंकड़ों में कोरोनावायरस संक्रमण के मामले बढ़ते जा रहे हैं। इस वायरस से बचाव के नाम पर वैक्सीन आ जाने के बावजूद लोगों में दहशत कम नहीं हो पा रही है। सरकार भी निश्चिन्त नहीं है। इस संक्रमण से बचाव का वही शाश्वत सूत्र अब भी महत्त्वपूर्ण है कि, ‘‘बचाव ही उपचार है।“ कोरोना वायरस संक्रमण से बचे रहना है तो मुंह पर मास्क लगाएं, पांच छः फीट की दूरी रखें तथा हाथ धोते रहें।

कोरोना संक्रमण के आरम्भिक दौर में जो दहशत और अनिश्चितत थी उसकी वजह साफ थी। वह यह कि संक्रमण एकदम नया और अपरिचित था तथा इसके बचाव का टीका उपलब्ध नहीं था। लेकिन इस वायरल संक्रमण के दूसरे लहर में टीका उपलब्ध है और संक्रमण को लेकर लोगों के अपने अनुभव भी हैं फिर भी सरकार की ओर से बार-बार इस संक्रमण से डराने के सभी नुस्खे प्रयोग में लिये जा रहे हैं। कोरोनावायरस संक्रमण के शुरूआती दौर में सरकार, सत्तारूढ़ दल, कारपोरेट मीडिया के जरिये साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की जबरदस्त कोशिशें हुईं। मुसलमानों के तबलीगी जमात को कोरोना फैलाने के नाम पर आपराधिक मुकदमों में फंसाया गया। लाकडाउन के नाम पर देश के आम नागरिकों को बुरी तरह परेशान किया गया। उन्हें हजारों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर किया गया। अस्पताल की सेवाएं सीमित कर दी गईं। लगभग पूरा देश पुलिस स्टेट के रूप में तब्दील कर दिया गया। निजी अस्पतालों को कोरोना के नाम पर खुली लूट की छूट थी। देश में आर्थिक नाकेबन्दी लागू कर दी गई। प्रवासियों और मजदूरों के प्रति पुलिस और प्रशासन का रवैया निर्मम और शर्मनाक था।


कोरोनावायरस संक्रमण के बीते एक साल का अनुभव साफ है कि बीमारी/महामारी की आड़ में प्रशासनिक बर्बरता, अलोकतांत्रिक तानाशाही तथा कारपोरेट के मुनाफे के लिए आम लोगों के मौलिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा सकती है। लाकडाउन के नाम पर देश ने लम्बे समय तक लाकडाउन झेला है। 30-35 करोड़ सामान्य दैनिक मजदूरी करने वाले लोग पूरे 10-12 महीने परेशानी में रहे हैं। खाने के भी लाले पड़े थे। हजारों कि.मी. पैदल चलकर पुलिस के डन्डे खाकर अपमानजनक परिस्थितियों में आम लोग अपने घरों को लौटे। प्रशासन और पुलिस ने बर्बरता और अमानवीयता के कई उदाहरण पेश किये। हालात ने लोगों को जान बचाने के लिए निजी अस्पतालों के शरण में जाने को मजबूर किया। जान बचाने के लिए लोगों को 10.15लाख रुपये तक खर्च करने पड़े लेकिन फिर भी बहुत से लोगों को जानें गंवानी पड़ी।

सरकार और राजनीतिज्ञों तथा प्रमुख दलों में कुछ अपवादों को छोड़कर सभी ने अपनी राजनीति चमकाई। सत्ता पक्ष तो बेशर्मी की हद तक जाकर कोरोना राहत पैकेट पर भी अपना चुनाव चिन्ह और नेता का थोबड़ा छाप कर बांटता देखा गया। बेशर्म राजनीति की कई गन्दी हरकतें सरेआम देखी गईं लेकिन धर्म-जाति और वर्ग में बंटा समाज अब इस सिति में नहीं है कि वह इन क्षुद्र राजनीतिक पैतरों का मुंह तोड़ जवाब दे पाए। इसी दौरान बिहार में चुनाव हुए और मध्य प्रदेश में सरकार बदल गई। राजस्थान में भी खेल हुआ लेकिन कामयाबी नहीं मिली। कुल मिलाकर कोरोना काल में सत्ता के दम पर राजनीति ने आम लोगों को घुटनों पर लाकर खड़ा कर दिया।
               
कोरोना काल में सबसे ज्यादा हास्यास्पद देश के प्रधानमंत्री का किरदार लगा। कोरोना वायरस को भगााने के लिए ताली बजाने से लेकर गोबर-गोमूत्र-पापड़, हवन जैसे नुस्खे बांटने के अभियान पर देश शर्मशार रहा मगर नेताओं की बांछें खिली रहीं। वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग के लोगों को गोबर का ज्ञान बांटने वाले इस अपनी बेवकूफियों के लिए शर्मिंदा नहीं देखे गए। कोरोना काल के दौरान सत्ता पक्ष के कई ऐसे कार्यक्रम हुए जिसमें भारी भीड़ जुटी और वो भी कोरोना गाईडलाइन को धता बताकर। अमीर व राजनीतिक रसूखदार लोगों की सामान्य दिनचर्या और उनकी हवाई यात्रा में कोई दखल नहीं पड़ी। किसी लोकतांत्रिक देश में सत्ता का इतने बड़े पैमाने पर दुरुपयोग पहली बार दिखा। क्या सरकार, क्या न्यायपालिका, क्या पुलिस तो क्या मीडिया सबने सत्ता से मिलकर अपने भोले भाले नागरिकों का आखेट किया। एक बानगी देखिए। कोरोना कहर के दौर में सरकार ने मास्क नहीं पहनने वालों से 2000 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के दर पर चालान किया। नागरिकों को कोरोना वायरस संक्रमण से बचने के उपाय बताने की बजाय पुलिस चालान काटने एवं धन उगाही में ज्यादा सक्रिय थी।

ंकोरोना वायरस संक्रमण की आड़ में सरकार ने पेट्रोल, डीजल, गैस आदि के दामों में बेइन्तहां वृद्धि कर दी। आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ गईं। रेलें बंद होने से लोगों की आवाजाही लगभग ठप्प हो गई। बाद में कुछ रेलें चलाई भी गई तो किराए में 40-50 फीसद की बढ़ोतरी कर दी गई। हालात ऐसे बना दिये गये कि लोगों को अपने रोजगार एवं किराए के मकानों को छोड़ देना पड़ा। सरकार ने झूठी घोषणाएं की कि किराएदारों को किराए से राहत मिलेगी। बैंकों की कर्ज अदायगी में किस्तों और ब्याज में राहत दी जाएगी। मगर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। यहां तक कि संसद की कार्यवाही ठप्प कर दी गई। विपक्ष को पंगु बना दिया गया और कोरोना वायरस संक्रमण की आड़ में सरकार ने ‘‘आपदा में अवसर” का भरपूर लाभ लिया। परेशान कोई हुआ तो वह देश की आम गरीब जनता। शुरू में तो कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के टीके का इन्तजार था। आनन फानन में कोरोना से बचाव का टीका (वैक्सीन) आया भी तो कई विवादों के साथ। टीका की खुराक, अन्तराल को लेकर आज भी स्थिति सन्देहास्पद ही है। टीका लगवाने के बाद भी लोगों की मौत की खबरों ने कई आशंकाओं को खड़ा कर दिया। पहले तो कहा गया कि टीका वायरस संक्रमण से बचाएगा, बाद में इसे केवल  ‘‘इम्यून बुस्टर” के रूप में प्रचारित किया जाने लगा।

भारत में कोरोना काल के दौरान लगभग पूरे एक साल तक ‘‘लाकडाउन”  की स्थिति के बीच ही लोगों ने दीपावली, ईद, क्रिसमस तथा होली मनाई। बच्चे घरों में कैद रहे। लोगों, परिवारों में तनाव बढ़ा, बेरोजगारी बढ़ी, लोगों की आमदनी बहुत कम हो गई। अर्थव्यवस्था चरमरा कर लगभग ठप्प जैसी स्थिति में आ गई। मगर दूसरी तरफ देश के दो तीन बड़े औद्योगिक घराने दो से दस गुनी आमदनी और मुनाफे का मजा लूटते रहे। सत्तारूढ़ पार्टी ने कई राज्यों में सरकार बना ली। बड़े पैमाने पर विधायकों की खरीद की गई। इस दौरान जिन राज्यों में चुनाव हुआ वहां सत्तारूढ़ दल ने सरकार बना ली। कुल मिलाकर कोरोना और लाकडाउन का वास्तविक लाभ सत्तारूढ़ भाजपा को मिला।

अब जब कोरोना वायरस संक्रमण की दूसरी लहर की बात चल रही है तो यह आशंका बताई जा रही है कि कोरोना वायरस संक्रमण की यह लहर उसमें वायरस के नये जानलेवा स्ट्रेन की वजह से और ज्यादा खतरनाक होगी। इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना वायरस ने पलटवार किया है और इसके कई नये बैरिएन्ट तथा नये म्यूटेन्ट पाए गए हैं। चिन्ता की बात यह है कि इस नये स्ट्रेन के मारक क्षमता का कोई प्रामाणिक अध्ययन अभी तक उपलब्ध नहीं है। वैज्ञानिक यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि वायरस के नये वेरिएन्ट या स्ट्रेन पर मौजूदा टीका पूरी तरह असरकारी है भी या नहीं? आशंका तो यह भी व्यक्त की जा रही है कि अगर टीका प्रभावी नहीं हुआ तो अगले मई-जून तक भारत ही नहीं पूरी दुनिया बीते मई, जून की स्थिति में खड़ी दिखेगी। ताजा जानकारी के अनुसार कोरोना वायरस के नये स्ट्रेन महाराष्ट्र, पंजाब, गुजरात के साथ-साथ अन्य राज्यों में भी पाए गए हैं। हालांकि भारत सरकार ने जीनोम सिक्वेसिंग के लिये दस प्रयोगशालाओं का एक समूह बनाया है लेकिन अभी भी अपेक्षित 5 फीसद जांच के मुकाबले केवल 0.16 फीसद जांच ही हो पा रहा है। ऐसे हर जांच के लिए करीब तीन से पांच हजार रुपये खर्च होते हैं जो ये प्रयोगशालाएं स्वयं वहन कर रहे हैं। सवाल यह है कि यदि जांचों की संख्या बढ़ जाए तो शायद यह पता लगाया जा सकता है कि नया स्ट्रेन वास्तव में कितना घातक है?

कोरोना वायरस संक्रमण तथा ‘‘लाकडाउन” को लेकर अमरीका की सेन्टर फाॅर डिजीज कन्ट्रोल एण्ड प्रिवेंशन (सीडीसी) का एक ताजा आंकड़ा अभी सामने आया है जो चैंकाने वाला है। इसके मुताबिक अमरीका में कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती होने वाले, वेंटीलेटर पर जाने वाले या जान गंवाने वाले 78 फीसद लोगों का वजन ज्यादा था। ये मोटापा (ओबेसी) के शिकार थे। हम कह सकते हैं कि मोटापा अमरीका की समस्या है भारत की नहीं। लेकिन ऐसा नहीं है। लाकडाउन के दौरान हमारे देश में उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में मोटापा 58 फीसद बढ़ा है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान (आईसीएमआर) इन्डियाबी 2015 के अध्ययन के अनुसार भारत के चार प्रमुख राज्यों में 25-40 फीसद शहरी आबादी सामान्य से ज्यादा वजन वाली है। कोरोना काल में यहां के मध्यमवर्गीय परिवारों में मोटा काफी बढ़ा है। कोरोना एवं मोटापा को लेकर सीडीसी का यह अध्ययन डर को बढ़ा देता है।

कोरोना काल में सरकार ने देश के कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों को बेचने या निजीकरण करने का खुला खेल खेला। यातायात महंगे हो गए और पेट्रोल डीजल तथा गैस की बढ़ी कीमतों ने तो गजब कर दिया। इस दौरान तुष्टिकरण की राजनीति के सहारे सत्ता हासिल करने वालों ने कोरोनाकी जाति और उसका धर्म भी तलाश लिया था। इस दौरान धार्मिक-जातिय वैमनस्यता खूब बढ़ी। कोरोना काल में अभी मार्च के तीसरे हफ्ते में एक चैंकाने वाली खबर और है जिस पर देशवासियों को गौर करना चाहिए। इस दौरान पूरी दुनिया में करोड़ों लोग एक झटके में आर्थिक रूप से कंगाली की तरफ ढकेल दिये गये। इनमें से आधे से ज्यादा तो केवल भारत में हैं। अमरीकी रिसर्च संस्था ‘‘प्यू रिसर्च सेन्टर” के आंकड़े के अनुसार भारत में साढ़े सात करोड़ लोग गरीबी की गर्त में ढकेल दिए गए। इस दौरान देश का मुख्य मीडिया सरकार की पीठ थपथपाता रहा मगर इस बड़ी खबर को कभी नहीं दिखाया।

इस दौरान भारत में औद्योगिक वृद्धि और महंगाई के आंकड़े भी आए जो बेहद चिंताजनक हैं। कहा गया है कि इस दौरान औद्योगिक वृद्धि में गिरावट तथा महंगाई बढ़ी है। यह सरकार द्वारा रिकवरी की दी जा रही दलील से उलट है। सरकार एवं सरकार समर्थित मीडिया कह रहा है कि नवम्बर के बाद से अर्थव्यवस्था में तेजी आई है लेकिन यह सही नहीं है। इस दौरान औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) में जनवरी 2021 के लिये मात्र .1.6 फीसद (नकारात्मक) वृद्धि दर्ज की गई है। इस दौरान केन्द्रीय सांख्यकी संस्थान (सीएसओ) ने अनुमान लगाया था कि अर्थव्यवस्था .8 फीसद का प्रदर्शन करेगी लेकिन यह .6 से .6.5 फीसद तक ही रहा। बहरहाल अर्थव्यवस्था की तत्काल रिकवरी का कोई आधार नजर नहीं आता। सरकार एवं मीडिया की रिपोर्ट पर तो अब भरोसा भी नहीं रहा।

बहरहाल, कोरोना वायरस संक्रमण की यह दूसरी लहर लोगों के लिए एक बड़ी चिंता है मगर सरकार एवं कारपोरेट के लिये मुनाफे एवं धन्धे का बेहतरीन अवसर। देश में निम्न एवं सामान्य मध्यमवर्गीय परिवारों के सामने रोजगार का संकट खड़ा है तो दैनिक मजदूरी पर गुजारा करने वालों के समक्ष जीवन और आजीविका का सवाल। महामारी या बीमारी के नाम पर देश के औसत लोगों को कई महीनों तक आजीविका एवं भोजन से अलग नहीं रखा जा सकता। कोरोना काल के इसी खण्ड में देश के किसानों ने सरकार के तीन कृषि सम्बन्धी कानूनों को किसान विरोधी बताकर कई महीनों से आन्दोलन छेड़ा हुआ है। स्कूल बंद हैं। यातायात बाधित है। व्यापार लगभग ठप्प है। युवा तनाव में है। लोगों के आपसी रिश्ते दरक रहे हैं। पुलिस और प्रशासन की निरंकुशता ज्यादा देखी जा रही है। लोगों की ऐसी अनेक आशंकाओं को यदि ठीक से सम्बोधित नहीं किया गया तो 130 करोड़ की आबादी में जो निराशा फैलेगी उसका इलाज इतना आसान नहीं होगा।

Recommended Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *